बिलावल की यात्रा मीडिया के लिए सिर्फ मसाला बनकर न रह जाए
इस्लामाबाद। पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो की भारत यात्रा कहीं मीडिया के लिए मसाला बनकर न रह जाए। जानकारों की मानें तो इससे कुछ नया होने की संभावना कम ही नजर आ रही है। गौरतलब है कि चार और पांच अप्रैल को भारत और पाकिस्तान के बीच हाई वोल्टेज ड्रामा देखने को मिलेगा। गोवा की राजधानी पणजी में शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन सम्मेलन का आयोजन होना है। इस सम्मेलन में एसीसीओ देशों के विदेश मंत्री भी शामिल होंगे। पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भूट्टो भी मौजूद होंगे। कई विशेषज्ञों की मानें तो बिलावल का भारत दौरा दोनों देशों की मीडिया के लिए मसाला परोसने वाला होगा। लेकिन उनके आने से रिश्तों पर कुछ खास फर्क पड़ेगा, इस बात की संभावना बहुत कम है। भारतीय विशेषज्ञों की मानें तो दोनों देशों के रिश्तों में सुधार तब तक नहीं होगा जब तक पाकिस्तान की विदेश नीति को उनके देश में समर्थन मिलेगा। इसमें एक बड़ा रोल पाकिस्तानी सेना का भी है जिसे नजरअंदाज करना मुश्किल है। पिछले 10 सालों यानी एक दशक में भारत आने वाले बिलावल पाकिस्तान के पहले विदेश मंत्री हैं। उनका यह दौरा यह बताने के लिए काफी है कि आतंरिक स्तर पर पाकिस्तान में भारत और दुनिया की राजनीति को लेकर कितने मतभेद हैं।
बिलावल के साथ एससीओ सम्मेलन में पाकिस्तान के परममित्र चीन के भी विदेश मंत्री मौजूद होंगे। लेकिन पाकिस्तान के विचारक भारत दौरे को एक अपमान के तौर पर देख रहे हैं। पाकिस्तान की विदेश नीति की सबसे बड़ी समस्या है कि भारत पर कभी कोई समझौता नहीं होता है। विदेश नीति में सबसे बड़ा फोकस चीन, अमेरिका और रूस पर ही रहता है। पाकिस्तान को इस समय अफगानिस्तान से भी काफी चुनौतियां मिल रही हैं। साथ ही वह मीडिल ईस्ट की बदली राजनीतिक स्थितियों से भी निपटने के लिए संघर्ष कर रहा है। एशिया सोसायटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के सीनियर फेला सी राजामोहन के अनुसार पाकिस्तान की सेना के लिए भी एजेंडा तय करना मुश्किल हो रहा है। जबकि वह लंबे समय से भारत की रणनीति समेत देश की बाकी प्रमुख नीतियों की मध्यस्थ रही है।
हाल ही में पूर्व सेना प्रमुख जनरल (रिटायर्ड) कमर जावेद बाजवा को लेकर सामने आई खबरों से भी इस बात की पुष्टि हो जाती है। देश के कई सीनियर जर्नलिस्ट्स जैसे हामिद मीर ने बाजवा पर कश्मीर मसले पर भारत के साथ बड़ा समझौता करने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि बाजवा का दावा था कि पाकिस्तानी सेना भारत से लड़ने की स्थिति में नहीं है। सेना प्रमुख के रूप में उनके छह साल के कार्यकाल के दौरान मीडिया या राजनीतिक वर्ग के कुछ लोगों ने बाजवा की आलोचना करने की हिम्मत की। जानकारों के अनुसार घरेलू स्तर पर काम करने के अलावा पाकिस्तान को विदेश नीति की सहमति के पुनर्निर्माण के लिए बहुत समय की जरूरत है। भारत को बि अपनी प्राथमिकताओं को बदलना होगा। भारत सरकार के लिए एक प्राथमिकता रावलपिंडी में सेना के लिए जरूरी और मूल्यवान पर्दे के पीछे की रणनीति को बरकरार रखने की जरूरत है।
Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.