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मुद्दों से ज्यादा पहाड़ी टोपी की हुई चर्चा नेताओं ने खूब की रिझाने की कोशिश

लखनऊ । 2022 का विधानसभा चुनाव टोपी फैशन के लिए भी जाना जाएगा। इस चुनाव में परस्पर विरोधी दल के नेता मतदाताओं को रिझाने के लिए पहाड़ी टोपी पहने नजर आए। मसूरी निवासी समीर की इस पेशकश पर असली पहाड़ी टोपी बनाम फैशनेबल पहाड़ी टोपी की बहस भी चल पड़ी है। साल के 2022 के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सीएम पुष्कर सिंह धामी, पूर्व सीएम हरीश रावत, नेता विपक्ष प्रीतम सिंह के साथ ही अन्य कई दलों के नेता लगातार इस टोपी में नजर आए। मूल रूप से लखनऊ निवासी समीर शुक्ला ने उत्तराखंड की परम्परागत नाव स्टाइल की टोपी पर चार अलग अलग रंगों की पट्टियां और मैटल का ब्रहमकमल जड़कर इसे फैशन स्टेट्स बना दिया।  शुक्ला ने कहा कि 1995 में लखनऊ छोड़ने के बाद से वो अगले दस साल तक प्रत्येक सावन में केदारनाथ धाम जाकर साधना करते रहे। इस दौरान ब्रहमकल के दर्शन उन्हें अलग तरह की ऊर्जा देता था। एक कलाकार होने के कारण जब उन्होंने 2017 में उत्तराखंड की टोपी को फिर गढ़ने का मन बनाया तो इसे युवाओं के माफिक बनाने के लिए ब्रह्मकमल जोड़ दिया, जो हिट रहा। शुक्ला के मुताबिक पांच साल बाद उनकी कला को इस बार के चुनाव ने सर्वमान्य बना दिया है। गढ़वाल विश्व विद्यालय के संस्कृतिकर्मी एवं पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. डीआर पुरोहित मानते हैं कि समीर की उत्तराखंड की परम्परागत तिरछी टोपी को ही नया जीवन दिया है। गढ़वाल रायफल और कुमांऊ रेजीमेंट में आज भी यह टोपी सैरिमोनियल टोपी के तौर पर पहनी जाती है। एक तरह से जैसे आर्मी का बैगपाइपर बैंड हमारे मंगलकार्यों में घुल मिल गया, ऐसे ही यह टोपी भी हमारे समाज की पहचान है। कुछ लोगों ने हिमाचल की तर्ज पर गोल टोपी को भी लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया लेकिन यह प्रयोग सफल नहीं हुआ। मैं खुद गोल टोपी पहनने के कारण विदेश में दो बार सांस्कृतिक रूप से गलत पहचान का शिकार हुआ। वहीं, बुजुर्ग दर्जी दिवान सिंह डसीला का कहना है कि कुमाऊं में पहाड़ी टोपी नाव की तरह होती थी। टोपी में किसी भी प्रकार का चिह्न नहीं हुआ करता था। टोपी का रंग लोग स्वेच्छा से पंसंद करते हैं। हालांकि काली और सफेद टोपी पहनना ही पसंद करते है। आज भी टोपी का आकार तो वही है लेकिन इसमें डिजाइन कई प्रकार के आ रहे हैं।

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