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कभी शान रहे, अब रो रहे हालात पर

इंदौर में हुई रिकार्ड तोड़ बारिश ने शहर और आवास नियोजन की पोल तो खोली ही, दो दशक से ज्यादा पुराने कई व्यावसायिक कांप्लेक्स की बदहाली भी सामने ला दी। कई कांप्लेक्स के तलघर में ऐसा जलजमाव हुआ कि कई दिन तक पानी निकाला नहीं जा सका। बिजली के मीटर आदि तलघर में ही लगाए जाने की पुरानी परंपरा है इसलिए पूरा कांप्लेक्स ही कई दिन अंधेरे में डूबा रहा। ऐसे ही प्रदेश के सबसे बड़े बाजार दवा बाजार में सार्वजनिक गलियारों और सीढ़ियों के हाल बदहाल रहते हैं। ऐसे व्यावसायिक कांप्लेक्स के तलघरों में गाड़ी पार्क करने वालों का सामना जर्जर खंभों, छतों और सीढ़ियों से होता है। शहर के पुराने बांशिदों के लिए यह निराशाजनक इसलिए है कि कभी इनकी शान थी और मुंहमांगे दामों पर दुकान, आफिस बेचे गए। इनकी कमजोर हालात नागरिकों की सुरक्षा को भी खतरे में डालती है। प्रशासन को इसकी भी चिंता करनी चाहिए।

संसाधनों के भरपूर उपयोग का ज्ञान-गणित

शहर में घरों से कचरा एकत्र करने वाली गाड़ियां सार्वजनिक सूचना को प्रसारित करने का महत्वपूर्ण काम भी करती हैं। ये स्वच्छता के क्षेत्र में मिली उपलब्धि का गान करती हैं, आगे इसे बरकरार रखने का आह्वान भी करती हैं। बकाया संपत्तिकर आदि जमा करने के लिए नौ सितंबर को हुई लोक अदालत और सरचार्ज में मिलने वाली छूट की अनुपयोगी हो चुकी जानकारी ये दस दिन बाद भी दे रही हैं। बेहतर होता कि नगर निगम और प्रशासन की अनूठी पहल 22 सितंबर को ‘नो-कार डे’ पर सहभागिता की अपील ही की जाती। अधिकतम लोगों तक यह संदेश प्रसारित होता। अभियान के प्रचार-प्रसार के लिए नगर निगम ने खर्चा भी किया होगा। इस अनूठे और सस्ते संसाधन का उपयोग करने की उचित रणनीति होनी चाहिए। बहुत से कामों में अव्वल रहने वाले नगर निगम को यह गणित भी समझना चाहिए।

कुछ चीजें अभियान का हिस्सा नहीं आदत बनें

वायु गुणवत्ता के मामले में अव्वल आए इंदौर में वायु प्रदूषण को कुछ कम करने के लिए ‘नो-कार डे’ जैसी पहल की जा रही है। नागरिकों, विभिन्न संस्थाओं और सरकारी एजेंसियों ने वायु प्रदूषण कम करने के लिए ऐसे कई अभियान चलाए हैं। इनका असर भी हुआ है। जागरूकता भी आई है। यह शहर हमारा मान है और इसे बढ़ाने हर नागरिक को ऐसे अच्छे काम करने के लिए अभियान की नहीं आदत की जरूरत है। अब हर सिग्नल पर टाइमर लगे हैं तो दो-तीन मिनट के लिए गाड़ियों का इंजन बंद करने में फायदा ही है ना। वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण तो कम होगा ही ईंधन की भी बचत होगी। कुछ दूर पैदल चलने या फिर सार्वजनिक परिवहन साधनों का उपयोग करने में भी लाभ ज्यादा है। शहर में मेट्रो चलने वाली है। उसके लिए भी ‘ग्यारह नंबर की गाड़ी’ उपयोगी रहेगी इसलिए अच्छी आदत डालिए।

तू डाल-डाल, मैं पात-पात

अपनी व्यवस्था में प्रशासनिक अधिकारियों का दखल बर्दाश्त न कर पाने वालों में सरकारी अस्पतालों के डाक्टर आगे हैं। चूंकि ये स्वास्थ्य संबंधी अहम मामलों के विशेषज्ञ होते हैं और इनके बिना काम नहीं चल सकता इसलिए ये झुकते भी नहीं। उधर, सभी को झुकाने में विश्वास रखने वाले प्रशासनिक अधिकारियों की डाक्टरों से खुन्नस भी इसी बात को लेकर रहती है इसलिए अस्पतालों का दौरा उनका पसंदीदा कार्य होता है। बीते दिनों एमवाय इसी कहानी से गुजरा था। फिर एक विभाग के आपरेशन थियेटर में पानी टपकना शुरू हुआ। सर्जरी बंद हुए 10 दिन हो गए। पीड़ित ने कलेक्टर से कहा। कलेक्टर ने डाक्टरों को। पता चला मेटेनेंस करने वाली कंपनी ठीक से काम नहीं कर रही। बुलाने पर आ नहीं रही। तो समझ में आया न कि स्वास्थ्य का मसला जटिल है और यहां ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ की आदत और गुंजाइश भी कम नहीं है।

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