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जब हाईकोर्ट की महिला-पुरुष जज की बेंच को मिली ‘जोड़ी सदा सलामत रहे’ की दुआ

जोड़ी सलामत रहे की दुआएं और आशीर्वाद पति -पत्नी के रिश्तों के लिए आम हैं, मगर उस मंजर की सोचिए, जब हाईकोर्ट की किसी खंड पीठ में साथ बैठे महिला-पुरुष जज के लिए किसी फैसले के बाद अदालत में ही इसे जोर – जोर से दोहराया जाए. दिल्ली हाईकोर्ट की पहली महिला जज और देश के किसी हाईकोर्ट की महिला चीफ जस्टिस लीला सेठ ऐसे ही एक दिलचस्प अनुभव से रूबरू हुई थीं.

जस्टिस लीला सेठ और जस्टिस राजेंद्र सच्चर की खंडपीठ एक क्रिमिनल अपील की सुनवाई कर रही थी. यह अपील निचली अदालत द्वारा हत्या के एक मामले में एक युवक को आजीवन कारावास की सजा दिए जाने के खिलाफ थी. अपील की सुनवाई और रिकार्ड के परीक्षण के बाद पीठ ने युवक को दोषी सिद्ध जिए जाने के पर्याप्त कारण नहीं पाए. आरोप को खारिज करते हुए पीठ ने युवक को दोषमुक्त करते हुए रिहाई के आदेश दे दिए. ग्रामीण पृष्ठभूमि के आरोपी युवक की मां फैसले के समय अदालत में मौजूद थी. उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था. उसने दोनों हाथ उठाकर जोर- जोर से जोड़ी (जस्टिस सच्चर और जस्टिस लीला सेठ) के हमेशा सलामत रहने की दुआएं देना शुरू कर दिया. संकोच में पड़े दोनों जज फिक्रमंद थे कि उनके असली जीवन साथी क्या सोचेंगे?

लेकिन उस क्लब की थी कुछ और ही शर्त !

जोड़ी की सलामती के सवाल पर जस्टिस लीला सेठ को दिल्ली जिमखाना की सदस्यता के सवाल पर इसके उलट अनुभव हुए. आमतौर पर यह क्लब जजों की नियुक्ति के बाद उन्हें अपना सदस्य बना लेता था, लेकिन लीला सेठ को आवेदन के काफी समय बाद भी कोई उत्तर नहीं प्राप्त हुआ. पूछताछ पर टालमटोल होती रही. जोर देने पर बताया गया कि उनके यहां महिलाओं को सदस्यता देने की व्यवस्था है लेकिन उससे शर्ते जुड़ी हुई हैं. क्या ? केवल वही महिलाएं सदस्य बनाई जाएंगी जो अविवाहित अथवा तलाकशुदा अथवा विधवा हों. उनसे पूछा गया कि क्या वे इनमें से किसी केटेगरी में आती हैं ? उनके मुख से निकला , “ईश्वर की कृपा है. मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन आपका रवैया पूरी तरह से भेदभावपूर्ण है.” कुछ समय बाद उन्हें सूचना दी गई कि उनके पति को सदस्यता दी जा सकती है. लीला सेठ के कहने पर कि यह विचित्र व्यवस्था है, जवाब मिला कि हम नियमों से बंधे हैं.

26 और 62 की उम्र के विद्यार्थी साथ

हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पद से 62 साल की उम्र में लीला सेठ रिटायर हुईं, फिर उस कोर्स को पढ़ने के लिए उन विद्यार्थियों बीच बैठ गईं, जिनकी अधिकतम उम्र 26 थी. यहां तक कि उस संस्थान के निदेशक की उम्र चालीस थी. साथ बैठे विद्यार्थी और फैकल्टी नहीं समझ पाती थी , कि उनके साथ कैसे पेश आएं ? लेकिन लीला जल्द ही उनके बीच घुल -मिल गईं. उनके साथ क्विज और अन्य प्रतियोगिताओं में शामिल होने लगीं, सिर्फ एक दिक्कत थी. साथी सोचते थे कि रिटायर चीफ जस्टिस को सब कुछ आता होगा, लेकिन सच यह था कि बाकी विद्यार्थी जवाबों में जितनी गलतियां करते थे, लीला सेठ भी उसी के आस -पास होती थीं.

अवसाद से बचना है तो व्यस्त रहना होगा

यह पर्यावरण कानून से जुड़ा नौ महीने का “वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर” कोर्स था. रिटायरमेंट के कुछ महीने बाद लीला सेठ खुद को खाली और अकेला महसूस करने लगीं. उनका रूटीन अस्त -व्यस्त हो गया और वे अवसाद में जाने लगीं. उन्होंने अपने मित्र डॉक्टर के.पी.जैन को समस्या बताई. जैन ने कहा कि 55 वर्षों की व्यस्त दिनचर्या के बाद हुए इस खालीपन से तालमेल बिठाने में कुछ समय लगेगा. लीला सेठ के मशहूर लेखक पुत्र विक्रम सेठ ने उन्हें कुछ पुस्तकें भेंट करके जोश भरी कहानियां पढ़ने के लिए प्रेरित किया. पढ़ने के साथ लीला सेठ ने अवसाद के कारणों का आकलन शुरू किया. जरूरी लगा कि जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए कोई सार्थक काम और रूटीन होना चाहिए.

कोई क्लास न छूटे !

इस कोर्स के क्लास अपरान्ह तीन बजे से पांच बजे तक के होते थे. इसके लिए उन्हें नोएडा से दिल्ली के डब्लूडब्लूएफ सेंटर जाना रहता था. लीला सेठ ने कोशिश की कोई क्लास मिस न हो. रोज बिस्तर से उठकर क्या करूं के निट्ठलेपन अहसास से उन्हें फुर्सत मिली. रुचि की पढ़ाई और युवाओं के साथ ने जिंदगी में अभी और भी बहुत कुछ करने को बाकी रहने का भरोसा दिया. फील्डवर्क के लिए वे राजस्थान नहीं जा सकी थीं, लेकिन निदेशक डॉक्टर छत्रपति सिंह और अन्य विद्यार्थियों के साथ उड़ीसा के गड़ीमाता तट पर नसीबाला में वह ओलिव रिडली समुदी कछुओं को बचाने की मुहिम में वे शामिल हुईं. डिप्लोमा कोर्स पूरा करने के बाद डब्लूडब्लूएफ के अध्यक्ष डॉक्टर स्वामीनाथन के प्रस्ताव पर वे इसके बोर्ड ऑफ ट्रस्टी में भी शामिल हुईं. उपाध्यक्ष भी रहीं. वहां रहते वे पर्यावरण से जुड़े कानूनों के विकास में दिलचस्पी लेती रहीं.

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