दिल्ली के बाहर हो सकता है सुप्रीम कोर्ट? लोकसभा में सवाल के बाद आर्टिकल 130 चर्चा में
मॉनसून सत्र में शुक्रवार को हुई लोकसभा बैठक के प्रश्नकाल में केरल के थॉमस चाझिकादन ने ‘रीज़नल सुप्रीम कोर्ट’ पर सरकार से सवाल किया था. थॉमस ने कानून और न्याय मंत्री से सवाल किया था कि क्या सरकार को लीगल फ्रेटरनिटी की ओर से चेन्नई में सुप्रीम कोर्ट के स्थायी खंडपीठ की स्थापना का अनुरोध मिला है. आइए जानते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 130 में सुप्रीम कोर्ट को लेकर क्या कहा गया है.
सांसद थॉमस से पहले भी कई मौकों पर दक्षिण भारत की तरफ से ‘रीज़नल सुप्रीम कोर्ट’ की मांग की गई है. आम राय है कि सुप्रीम कोर्ट की बैठक हमेशा दिल्ली में ही हुई है. लेकिन इतिहास में दो बार सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई कश्मीर और हैदराबाद में हो चुकी है.
कानून मंत्री ने क्या जवाब दिया?
कानून मंत्रालय की तरफ से केन्द्रीय कानून राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुन राम मेघवाल ने जवाब दिया. उन्होंने बताया कि चेन्नई में सुप्रीम कोर्ट की परमानेंट बेंच बनाने का मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. सुप्रीम कोर्ट किस शहर में होगा, इसका प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 130 में बताया गया है.
संविधान के आर्टिकल 130 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में स्थित होगा. हालांकि, इसमें यह प्रावधान है कि राष्ट्रपति की मंजूरी के साथ भारत का मुख्य न्यायाधीश दिल्ली में या किसी अन्य स्थान पर भी सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई कर सकता है.
रीज़नल सुप्रीम कोर्ट की पहले भी मांग उठी
भारत सरकार को समय-समय पर विभिन्न पक्षों से आवेदन आए हैं कि दिल्ली से बाहर और भी हिस्सों में सुप्रीम कोर्ट की बेंचों की स्थापना हो. ग्यारहवें विधि आयोग ने 1988 में अपनी 125वीं रिपोर्ट “द सुप्रीम कोर्ट – ए फ्रेश लुक’ में दसवें विधि आयोग की सिफारिशों को दोहराया था. रिपोर्ट में सर्वोच्च न्यायालय को दो भागों में विभाजित करने का सुझाव दिया गया था – (i) दिल्ली में संवैधानिक न्यायालय और (ii) उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और मध्य भारत में अपील न्यायालय या संघीय न्यायालय.
अठारहवें विधि आयोग ने 2009 में अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया था कि दिल्ली में एक संवैधानिक पीठ स्थापित की जाए. साथ ही उत्तरी क्षेत्र में दिल्ली, दक्षिणी क्षेत्र में चेन्नई/हैदराबाद, पूर्वी क्षेत्र में कोलकाता और पश्चिमी क्षेत्र में मुंबई में एक-एक कैसेशन बेंच स्थापित की जाएं. ये एक तरह की अपीलीय अदालतें हैं. ये किसी मामले के तथ्यों की दोबारा जांच नहीं करतीं, ब्लकि केवल प्रासंगिक कानून की व्याख्या करते हैं.
सुप्रीम कोर्ट की शाखाओं का मामला दो बार मुख्य न्यायाधीश को भेजा जा चुका है. कानून राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुन राम मेघवाल ने अपने जवाब में फरवरी, 2010 की बैठक का जिक्र किया जिसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि दिल्ली के बाहर सुप्रीम कोर्ट की बेंच को स्थापित करने का कोई औचित्य नहीं है. अगस्त, 2007 में भी तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने यही बयान दिया था.
जब सुप्रीम कोर्ट की बैठक दिल्ली से बाहर हुई
आम राय है कि सुप्रीम कोर्ट की बैठक हमेशा दिल्ली में ही हुई है. लेकिन ‘Courts of India: Past to Present’ किताब में दो ऐसे वाक्यों का जिक्र किया है जब सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई कश्मीर और हैदराबाद में हुई. दरअसल, ऐसा संविधान के अनुच्छेद 374(4) की वजह से हुआ. इसके अनुसार संविधान के लागू होने के बाद से ही किसी राज्य में प्रिवी काउंसिल के रूप में काम करने वाली अथॉरिटी का क्षेत्राधिकार किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश के संबंध में समाप्त हो जाएगा. अथॉरिटी के सामने लंबित सभी अपील और अन्य कार्यवाहियां सर्वोच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दी जाएंगी और उनका फैसला वहीं किया जाएगा. ये अनुच्छेद खासतौर पर प्रथम अनुसूची के भाग बी में शामिल राज्यों पर लागू हुआ था, जिसमें कश्मीर, राजस्थान और हैदराबाद शामिल थे.
इस वजह से कश्मीर और हैदराबाद के प्रिवी काउंसिल के लंबित मामले सर्वोच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिए गए. हैदराबाद की अपीलों से संबंधित रिकॉर्ड और दस्तावेज़ उर्दू में थे. पहले उनका अनुवाद करने और फिर नई दिल्ली में उन पर सुनवाई करने के प्रोसेस में काफी समय और खर्चा होता. इससे बचने के लिए, पूर्व मुख्य न्यायाधीश कनिया ने इन अपीलों पर निर्णय लेने के लिए न्यायमूर्ति एमसी महाजन के अलावा न्यायमूर्ति आरएस नेल और न्यायमूर्ति खलील उल ज़मा सिद्दीकी (दोनों आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के जज) की एक पीठ का गठन किया. अनुच्छेद 127 मुख्य न्यायाधीश को हाई कोर्ट के न्यायाधीश को सुप्रीम कोर्ट के एडहॉक जज के रूप में नियुक्त करने की अनुमति देता है.
इसी तरह साल 1954 में कश्मीर की अपीलों की सुनवाई के लिए पूर्व मुख्य न्यायाधीश महाजन ने खुद को, न्यायमूर्ति एसआर दास और न्यायमूर्ति गुलाम हसन की एक पीठ गठित की. मामलों का फैसला करने के लिए यह पीठ कश्मीर में हर हफ्ते 1 या 2 बार बैठक करती थी.
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