कबीर मठ राजगीर में मनाया गया विश्व हास्य दिवस
बिहारशरीफ। विश्व हास्य दिवस 8 मई के मौके पर राजगीर अनुमंडल के पास स्थित कबीर मठ में महंत शिवचरण दास के नेतृत्व में विश्व हास्य दिवस मनाया गया। इस मौके पर लोगों ने अपने अपने विचार रखे और वर्तमान समय में हंसी के महत्व पर विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला। हंसी के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कबीर मठ के महंत शिवचरण दास ने कहा कि हंसी हर रोगों का दवा है।हंसने मात्र से हमारे क्लेश दूर हो जाते है । राजगीर आर्य समाज के प्रधान रविंद्र कुमार आर्य ने कहा कि जीवन को हंसी खुशी में बिताना चाहिए। सत्य ही धर्म है। अगर अपने जीवन में अच्छे कार्य करेंगे तो हमेशा अंदर से खुशी होगी। इस मौके पर उपस्थित राष्ट्रीय न्याय मोर्चा के संस्थापक राम किशोर प्रसाद ने कहा कि हंसना ही है जिंदगी एक पल भी रोना नहीं, जीना है तो हंसना सीखो कदम कदम पर लड़ना सीखो। नामक पंक्ति सुनाया ।
वही मौके पर उपस्थित सद्भावना मंच( भारत) के संस्थापक दीपक कुमार ने बधाई देते हुए कहा कि आजकल लोगों के चेहरे पर हंसी कम दिखती है। ऐसा लगता है मानो कि हर व्यक्ति तनाव में जी रहा हो । उन्होंने सलाह देते हुए कहा कि अपने जीवन को कभी भी तनाव में ना डालें बल्कि हंसी खुशी के साथ अपना जीवन व्यतीत करे। उन्होंने विस्तार पूर्वक बताते हुए कहा कि रोदन-बेला में अलबेला हास्य रस कहाँ से आ टपका? जब उर-अन्तर में वेदना का हाहाकार मचा हुआ हो, हर करवट में कराह हों, साँसों में घुली हुई चिन्ता दम घोंट रही हो, वर्तमान तड़प रहा हो, भविष्य के सुनहले सपने भ्रम-संशय-आतंक के फन्दे पर झूल रहे हों, पीडित की हर पुकार अनसुनी हो, अन्याय का बोलबाला हो, शोषण और जुल्म मुष्टिक-चाणूर की तरह मर्दन करने को आतुर, कंस जैसी क्रूरता अट्टहास करती हो, आम आदमी महँगाई के मूसलाघात से बिलबिला रहा हो, ऐसे विषमय विषम व्याल समय में कौन हँसने की हिम्मत जुटा पायेगा भाई! पुलवामा के शहीदों की विधवाओं, उनके अनाथ बच्चों तथा असहाय बूढ़े माँ-बाप के पोपले मुँह पर हँसी कब लौटेगी, राम जाने। दबंग-मर्दिता अनसुनी पुकार की आँखों में लहू के आँसू सूख चले हैं–धरने पर बैठी मल्ल महिलाओं के पपड़ियाये होंठों पर हँसी कौन ला सकता है, भू-लुण्ठित लोकतंत्र की सूखती आँतों में अब कोई हुलास बाकी नहीं रहा कि कोई गुदगुदाकर हँसा दे। मात्र छह महीने का अधकचरा प्रशिक्षण लेने वाले ‘अग्निवीरों’ के चेहरे की हँसी कितनी गाढ़ी हो सकती है? पुरानी पेंशन के लिए आन्दोलन करने वाले कर्मचारियों-शिक्षकों के रिटायर होने पर क्या हँसी का कोई कतरा चिपका रहेगा उनके लबों पर? दर-दर की ठोकरें खाने वाले बेरोजगार अवसादग्रस्त शिक्षित युवा, जिनके माँ-बाप चुपके से उनकी जेब की तलाशी लेते हों, क्या किसी खुशी से खुलकर हँस सकते हैं? जिनकी बेटियाँ सयानी हो चली हों और ज़ार बाज़ार बने समाज में नौकरीशुदा बेटे बोलियों पर चढ़ चुके हों, वहाँ बनावटी हँसी का रंग पीतल पर सोने के पानी जैसा ही है कि कब उतर जाये। विचित्र विडम्बना है कि पदार्थीकृत बेटियाँ परम्परानुसार ‘दान’ बनकर सारे जहान को हँसी-खुशी बाँटने का संकल्प लेकर जीवन भर अपने अनेक ‘दुःख’ छिपाने की कला सीखती बुढ़ा जाती हैं। हास्य=हा+आस्य होता है, अर्थात् जब आस्य(मुख) मण्डल में हृदय-सिन्धु के उल्लास की हिलोर अपनी पूरी उमंग के साथ अधरों के साहिल को भिगो देती है तो ‘हा-हा-हा-हा’ की तरल ध्वनि से धरती-आकाश गूँज उठता है। यह ध्वनि दूसरों को भी गुदगुदाती है, हँसाती है, उल्लसित करती हुई पूरे वातावरण को रसमय बना देती है, लेकिन दूसरा तभी हमारा साथ दे सकता है, जब वह भीतर से प्रसन्न-प्रफुल्ल हो। हास्य भौतिक जगत् के दुःख-दर्द, शोक-चिन्ता के भुलावे की स्थिति में आनन्दाम्बुधि की छलकन है। विमुक्त आत्माएँ अलौकिक आभा से दीप्त स्मित की रेखाएँ विकीर्ण करती हैं हास्य की फुहार नहीं प्रकट करतीं। यह हास्य जब विराटता को प्राप्त करता है तो ठहाके में परिणत हो जाता है। दूसरी बात यह कि ‘ठहाका’ शब्द में समष्टि का उल्लास(उत्+लास) या मोद-विनोद-प्रमोद-आमोद का ललित लास्य व्यंजित होता है। उद्ग्रीव लास्य भाव निरलस हो जब उमंग के पाँव की मंजु मंजीर की तरह कर्ण-कुहरों में अमृत उड़ेल देता है तो उल्लास पैदा होता है।हास्य महारास के आनन्द की अन्तर्मुखी धारा है, शिव जी के डमरु का निर्भय निनाद है। रंगमंच पर हास्य-विनोद की सृष्टि हेतु सावधान अभिनय करने वाले बौने-कुब्जे-हिजड़े दर्शकों को तो पूरी छूट देते हैं, किन्तु वास्तविक जीवन में दर्प-दृप्त शक्तिशाली खल अपनी सारी मूर्खताओं के साथ विदूषक जैसा व्यवहार करता हुआ भी भीरु दर्शक-श्रोताओं की हँसी को दण्डित कर सकता है। डरा हुआ आदमी हँसने का हौसला नहीं रखता और मरा हुआ आदमी बिल्कुल नहीं हँसता। कोई हुजूर के दरबार में बेहयायी के साथ दाँत निपोरता है, कोई अपमानित व्यक्ति मजबूरी में खिसियानी हँसी हँसता है, कोई बेवकूफ़ हरदम दाँत फाड़े रहता है, किसी का हँसते-हँसते पेट फूल जाता है, कोई हँसकर सारा भेद उगल देता है, कोई दूसरों को अपमानित करने के उद्देश्य से हँसता है, खलनायक खल-खल अट्टहास लगाता है भय के भाव को पैदा करता हुआ त्रैलोक्य विकम्पित करता। उसके अट्टहास में अहंकार अपने चरम पर होता है, वह दूसरों को कृमि-कीट से अधिक महत्त्व नहीं देता। ‘अट्टहास’ वह है जो ‘अट्ट’ अर्थात् अट्टालिका को हिला दे, अपने भयंकर हास्य से सभी को कम्पायमान कर दे। याद रखिए कि ऐसी हँसी मत हँसिए कि दूसरे को रोना आये। कोई रो रहा हो तो मत हँसिए, कोई विपत्ति में हो तो मत हँसिए, किसी के यहाँ मातम हो तो मत हँसिए। किसी की ग़रीबी पर, बदनसीब पर मत हँसिए। कोई अन्धा है, लँगड़ा है, विकलांग है तो उसे चिढ़ाने के लिए, उसका मजाक उड़ाने या कष्ट पहुँचाने के लिए मत हँसिए। हँसिए तो कान्हा की तरह हँसिए कि व्रजमण्डल सराबोर हो जाय। शिवजी के गण दिखायी दें तो बिल्कुल मत हँसिए। रावण तथा कंस, दुर्योधन तथा दुःशासन की तरह मत हँसिए। विषम कलिकाल में अपराधी और बलात्कारी किसी को सताने का आनन्द लेते हुए हँसता है, राजनेता और पाखण्डी धर्माचार्य लोगों को मूर्ख बनाने की कामयाबी पर हँसता है, अहंकारी विजयोन्मत्त होकर अट्टहास लगाता है। हँसने से भी हिंसा होती है। इस हिंसा से बचते हुए खूब हँसो मगर जल्दी-जल्दी मत हँसो भाई, वरना प्याले में तूफान आ जायेगा।
मौके पर कबीर मठ के किशोरी दास ने धन्यवाद ज्ञापन किया ।