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भारतीय लोकतंत्र की पारंपरिक अवधारणा की प्रासंगिकता वर्तमान की चुनौतियों के कई पक्षों का निराकरण है : अविनाश झा

पटना। मगध महिला कॉलेज पटना के राजनीति विज्ञान विभाग में भारतीय ज्ञान परम्परा और लोकतंत्र विषय पर अविनाश कुमार झा का व्याख्यान आयोजित किया गया। कार्यक्रम में आगत अतिथि का स्वागत एवं विषय प्रवेश डॉ पुष्पलता द्वारा किया गया और अध्यक्षता प्रधानाचार्य प्रो नम्रता सिंह ने किया। मुख्य वक्ता अविनाश कुमार झा पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय पटना ने अपनें व्याख्यान में ज्ञान परम्परा के खुली मान्यता एवं विमर्श के तार्किक आधार के समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के साथ अतीत के गणतांत्रिक पक्ष वैदिक काल के स्वरूप के साथ बुद्ध के विचारों में गणतंत्र की शक्ति की समीक्षा करते हुए उत्तरमेरुर अभिलेख के आलोक में विकसित मान्यता और ब्रिटिश शासन में उभरे भारतीय लोकतंत्र की मान्यताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भारतीय ज्ञान परम्परा में लोकतंत्र की अवधारण ऐतिहासिक संदर्भ में स्पष्ट रुप से अभिव्यक्ति हुई, जो ज्ञान परम्परा की समृद्धि को दर्शाता है। स्वतंत्रता पश्चात भारत को राजनीतिक विकास इस तरह करना था कि युगों पुरानी विविधताएं व परम्परा के साथ आधुनिक विश्व के सर्वश्रेष्ठ तत्वों को भी ग्रहण किया जा सके। अरस्तु एवम कोटिल्य के समय से चिंतक राजनीति और नैतिकता के परस्पर संबंध पर बल दिया था न कि अल्पकालीन लक्ष्य और सत्ता संबंधी लाभों का। परम्परा और आधुनिकता के बीच हमारे लोकतंत्र का स्वरूप क्या होगा? यह लोकतंत्र के भविष्य कैसा होगा जो लाभकारी होगा। लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन माना जाता है। लेकिन वास्तविकता में यह अभिजनों का शासन साबित होता है। यह जनता के लिए होता है पर जरुरी नहीं कि सारी जनता के लिए हो। लोकतंत्र उसी विसंगति को दूर करने में नाकाम है जिसके लिए उसकी रचना होती है। सिद्धांत में जनता ही केंद्र में होती है लेकिन व्यवहार में लोकतंत्र एक संवैधानिक व्यवस्था को जन्म देती है जिसमें अधिकार और कर्तव्य का विभाजन कार्यपालिका न्यायपालिका और विधायिका में कर दिया जाता है। आमजन अधिकार संपन्न नहीं होती इसके लिए आंदोलन द्वारा वास्तविक लोकतंत्र के स्थापना व उत्पीड़न के पक्ष पर बल देने की बात करते हैं। अर्थात लोकतंत्र के अंदर लोकतांत्रिक संघर्ष भारत और विश्व में निरन्तर जारी है। राजनीतिक सहभागिता और वयस्क मताधिकार को प्रथमिकता देना सिर्फ राजनीतिक आस्था का प्रश्न नहीं है अपितु परिणाम वादी प्रयास है जिसके द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण, समाजिक गोलबंदी और आर्थिक विकास को एकीकृत स्वरूप दिया जाए। इन तीन पक्षों को एक साथ लाना भारत की ऐतिहासिक व ज्ञान परम्परा की अवधारणा रही है। इसकी सफलता तब होगी जब वह अपने वक्त और जनता की आकांक्षा को पूरा करे। विविध उद्देश्यों को एक साथ लेकर चलने में भारतीय ज्ञान परम्परा की एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की सर्जनात्मक संभावनाओं का उपयोग लोकतंत्र की विशिष्टता है। भारतीय लोकतंत्र की उपलब्धि है कि इसने लोकतांत्रिक मूल्ययुक्त विचार संस्था राजनीतिक स्वरूप द्वारा विभाजित खण्डित भारतीय समाज को जोड़ने का कार्य किया। ब्रिटिश शासन में नए मध्यवर्ग द्वारा व्यक्तिवाद एवं संविधान आधारित शासन की अवधारणा आई जो आजादी लोकतंत्र और समाजवाद के विचार युक्त ब्रिटिश शासन की देन थी जिसे अंग्रेजी प्रभुत्व से मुक्ति पश्चात संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य किया गया। लेकिन इस तथ्य की सही तस्वीर भारतीय ज्ञान परम्परा के साथ आधुनिक विश्व की प्रक्रिया में एकीकृत होने वाली अवधारणा के साथ समझना उचित होगा। प्राचीन मान्यता चिन्तन नए जमाने की आवश्यकता अनुरुप परिवर्तित होता है। जिसे परिवर्तन और निरंतरता की प्रक्रिया के अंतर्गत समझा जा सकता है जो अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को नष्ट किए बिना आवश्यकता अनुरुप नई पहचान प्राप्त कर लिया है। इस संदर्भ में भारतीय ज्ञान परम्परा और लोकतंत्र को समझने पर ही भारत की इस विलक्षण शासन पद्धति की प्रक्रिया को सही रूप में समझा जा सकता है। विभागाध्यक्ष डॉ पुष्पलता जी ने प्रश्नोत्तर सत्र को संचालित किया। डॉ मीना हीरो के द्वारा स्वागत एवं डॉ रिशु राज ने धन्यवाद ज्ञापन किया। कई शिक्षकों अर्चना, पूनम विना, सुरेन्द्र कुमार हिमांशु, देवचन्द्र तथा शोधर्थियो एवं छात्राओं की उपस्थिति रही।

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