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एक विद्रोही : जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ाई

त्रिमुहानी गांव जो आजादी के बाद से ही जम्मींदारो का गुलाम रहा है और जमींदार के आतंक से परेशान रहा है। किसी गांव या कस्बा में एक जमींदार हो तो आम जनमानस व्याकुल और आतंकित हो जाता है लेकिन त्रिमुहानी में तो सात – सात जमींदार था। पांच ब्राह्मण , एक राजपूत, एक मुस्लिम ! सब के सब एकदम क्रूर और तानाशाह ! जिसमे मानवीय गुण ना के बराबर , आजादी के बाद भी लोकतांत्रिक गणराज्य देश में इतना क्रूर जमींदार अपने रसूख के बल राजा बन बैठा। ये सभी जमींदार अलग गांव या जिला के थे। किसी जमींदार का पैतृक गांव त्रिमुहानी नही था। ना ही किसी का मातृभूमि त्रिमुहानी था। ये शोध का विषय है ये लोग त्रिमुहानी में आए कैसे? कोई छपरा का, तो कोई समस्तीपुर का , तो कोई दरभंगा शहर का , लेकिन सबके सब बाहरी ! पता नही देश में क्या खेल चला रहा था। किसी जमींदार के पास सौ एकड़ से कम जमीन नही । मतलब साफ था पूरा का पूरा गांव का खेतियोग्य जमीन इन जमींदारों का था। गांव के लोग आजाद भारत का गुलाम था जिसे अंग्रेजी हुकूमत से तो आजादी मिल गई थी पर नए भारतीय अंग्रेज के गुलाम बने हुए थे। सभी जम्मींदार का अलग – अलग कहचरी था। कहचरी कहिए या बंगला लोग आज भी उसे स्थान को कहचरी ही बुलाते है। लेकिन कहचरी का बिल्डिंग तक ग्रामीणों ने खरीद लिया। किसी ने सच ही कहा है ये देश गांवों का देश है और गांव में दो तरह के लोग रहते है एक मिट्टी से प्यार करने वाले लोग रहते है और दूसरा गांव गिरावन पर राज करने वाले लोग। जमींदार की हुकूमत ऐसी थी कि त्रिमुहानी के ही लोग जमींदार का मैनेजर और लठैत होता था। जमींदार को कभी लाठी नही उठाना होता था। मार खाने वाला और मारने वाला दोनो इसी गांव का था लेकिन मार खिलाने वाला ये बाहरी जमींदार होते थे। गांव के वैसे स्वाभिमानी लोग जिसे मरना पसंद था लेकिन गुलामी नही इस में से एक थे अनूप लाल यादव , अनूप यादव अखर, स्वाभिमानी, स्वतंत्रता प्रेमी, जिद्दी, और किसी के सामने हाथ न फैलाने वाले फौलादी इंसान थे। जिसे किसी कीमत पर गुलामी नही पसंद था। सभी स्वाभिमानी को अपने हिस्से का लड़ाई अपने तरीका से लड़ना था। कोई जमींदार के पिछलगुआ बन अपना काम करता तो कोई अपना सर्वस्व न्योछावर कर जम्मींदार से लड़ाई लड़ता था। अनूप लाल यादव सीधे दो – हाथ करने को तैयार थे। कई दफे आमने – सामने विरोध कर चुके थे। एक बार तो कोदाल से काटने जमींदार के घर घुस गए । अब क्या था आज अनूप लाल यादव के सामने खुद जम्मींदार था , अनूप बाबू कोदाल चला दिए! जम्मींदार भाग्यशाली था और कुदाल से जम्मींदार बस घायल हो सका लेकिन तभी जम्मींदार के गुरके आ धमके, किसी तरह वहां से भाग निकलने में अनूप लाल यादव सफल रहा । जम्मींदार को इस घटना से इतना डर हुआ की वो त्रिमुहानी आना छोड़ दिए। लेकिन वो कानूनी कारवाई में अनूप लाल यादव को तंग – तबाह कर दिए! गांव के लोग ही जमींदार का गवाह बन गया । पुलिस को रात दिन आने लगे। गांव के लोग बहुत डरे थे कोई साथ देने सामने नही आए क्योंकि उनके प्रस्थिती ही ऐसा था की स्टैंड नही ले सकते ! और अंत में अनूप लाल यादव को गांव छोड़ अपने कुछ करीबी साथियों के साथ महिनाम गांव में जाकर बसना पड़ा। कोर्ट , थाना, कहचरि, करते रहे गांव में को भी खतियौनी जमीन बचा था उसे भी बेचना पड़ा! अनूप लाल यादव की जिंदगी कुछ गाय, छोटे – छोटे चार बच्चे को पालने और इस केस से छुटकारा पाने में कटने लगा।

कुछ वर्ष बीत जाने के बाद समय करवट लिया जम्मींदरी प्रथा का उन्मूलन होने वाला था , जिम्मिंदरी प्रथा के समाप्ति के लिए सदन में बड़ा बहस छिड़ गया था। और इस जम्मींदार का भी पाप अंत होने वाला था। अनूप लाल यादव के सबसे छोटे पुत्र रामेश्वर यादव ( नेता जी ) का जन्म महिनाम घाट पर ही हुआ था। अनूप लाल यादव जी बीमार पर गए थे , उनके पैर का घाव का जख्म खत्म नहीं हो रहा था। त्रिमुहानी में उनके अपने भाई और चचेरे भाई को जब ये पता चला तो उन्हे किसी तरह त्रिमुहानी लाया गया। तब तक वो साधु रूप धारण कर लिए थे। उन्हें अपने कुल देवता नरसिंह और डीहवार बाबा में अटूट आस्था हो गया था। कहा जाता है की बाबा डीहवार मंदिर त्रिमुहानी का स्थापना उनके आस्था और भक्ति के अनुरूप ही उनके समक्ष पूरे गांव के लोग मिलकर किए। कहा तो ये भी जाता है की जैसे ही बाबा डीहवार का स्थापना त्रिमुहानी में हुआ वैसे ही उनका घाव ठीक हो गया। अपने मातृभूमि पर आकर फिर से स्वस्थ्य हो गए। और अपने जीवन के अंत काल तक बाबा डीहवार का पूजा अर्चना करते रहे।

जम्मींदार के विरुद्ध पहली क्रांति अनूप लाल यादव के बाद फिर से कम्युनिस्ट के द्वारा महेंद्र नारायण यादव के नेतृत्व में जम्मींदार को गांव से उखाड़ फेक दिया गया लेकिन जमीन पर मालिकाना हक उन जम्मींदार का कानूनी रूप से रह गया जिसे गांव के लोग फिर से अपने खून – पसीना के पैसा से आज तक खरीद रहा है।

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